इन सीमाओं के बनने की कहानी उतनी ही रोमांचक है, जितनी दुनिया में इंसानों के आने की कहानी. इंसान जब समाज के तौर पर यानी एक झुंड में रहने लगे तो उसके दूसरे जानवरों से अलग बनने की प्रक्रिया भी शुरू हुई. इसी रहन-सहन के दौरान इंसानों ने विभिन्न चीजों पर अधिकार जताना शुरू किया. इंसानों की जरूरतें और महत्वाकांक्षाएं व्यक्तिगत से सामाजिक होती गईं. ज्ञान के ज्ञात स्रोतों के अनुसार आज इंसानी सभ्यता अपने शिखर पर है, लेकिन आज भी जब राष्ट्रीय सीमाओं की बात आती है तो इन मसलों को युद्ध जैसे सबसे आदिम और हिंसक तौर-तरीकों से निपटते देखा जा सकता है. हाल ही में भारत और चीन के बीच गलवान घाटी में हुई हिंसा इसका उदाहरण है.
कहां बनती हैं देशों की सीमाएं?
किसी देश का निर्माण सबसे पहले इंसानी दिमाग में ही होता है. अपने देश भारत का ही उदाहरण लें तो ब्रिटिश शासन के अधीन एक साथ रहने के बाद आधुनिक काल में इसमें से भारत और पाकिस्तान दो राष्ट्र बने. ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आजादी के बाद 1947 में भारत का एक हिस्सा धर्म के आधार पर अलग होकर पाकिस्तान बना. हालांकि, इसके बाद भी 1971 में पाकिस्तान से टूटकर एक और अलग राष्ट्र बांग्लादेश बना. एक ही धर्म होते हुए भी पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों को सांस्कृतिक भिन्नताओं की वजह से अलग होने का विचार आया. यानी विभिन्न कारणों से सीमाओं का सिद्धांत सबसे पहले इंसानी दिमाग में ही जन्म लेता है और फिर हकीकत बनता है. फिलहाल दुनिया में 193 देश हैं जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं.
भारत-पाक के 1971 के युद्ध के बाद अलग राष्ट्र बांग्लादेश का निर्माण हुआ
कैसे आया सीमाएं बनाने का विचार?
इंसान आदिम काल में घुमंतू तरीके से जीवनयापन करते थे. जब से इंसान एक जगह पर रहने लगे उन्होंने खेती और पशुपालन शुरू किया. इसके बाद ही विभिन्न सीमाएं बननीं शुरू हुईं. खेती योग्य भूमि, कबीलों, रिहाइशी इलाकों आदि का निर्धारण शुरू हुआ. इसके बाद अतिरिक्त उत्पादन और जरूरी दूसरी चीजों के लिए व्यापार शुरू हुआ. यहीं से इंसानी समाज में संपत्ति का विचार भी आया. इसके बाद संपत्ति पर अधिकार की भावनाएं पैदा हुईं. समय बीतने के साथ व्यापार के साथ ही सीमाओं के विस्तार और पुनर्निर्धारण के लिए युद्ध भी लड़े गए.
कम से कम 500 साल पुरानी है राष्ट्र की अवधारणा
जवाहर लाल विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में एसोसिएट प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं कि 16वीं सदी में जब पूंजीवाद का आगमन हुआ, तभी आधुनिक राज्य की अवधारणा भी पैदा हुई. यानी दुनिया में देशों की आधुनिक सीमाएं करीब 500 साल पहले निर्धारित होनी शुरू हुई. हालांकि, इससे पहले भी राष्ट्रों की सीमाएं युद्ध के जरिए बदलती रहीं. अलग-अलग सदियों में दुनिया का नक्शा देखें तो यह हर बार बदलता गया है. इस दौरान दुनिया भर में लोगों पर शासन करने का तरीका भी बदलता गया. जैसे पहले देशों पर राजा शासन करते थे और बाद में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें शासन करने लगीं.
व्यापार और आधुनिक राष्ट्र का संबंध
16वीं सदी में जब बड़ी व्यापारिक कंपनियां बनीं तो उनको अपने व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए कई चीजों की जरूरत महसूस हुई. इसमें सड़कें, टैक्स सिस्टम और एकीकृत संचार व्यवस्था (Unified Communication) जैसी चीजें शामिल हैं. असल में 1648 में जब संप्रभु राष्ट्र का विचार देने वाला वेस्टफैलियन सिस्टम (Westphalian System) आया तो उसने देशों के सीमा निर्धारण में अहम भूमिका निभाई. इस दौरान एक देश के लिए चार अहम चीजों- क्षेत्र, जनसंख्या, संप्रभुता और सरकार का विचार सामने आया. इसने भी राष्ट्रों की सीमाओं के निर्धारण में अहम भूमिका निभाई.
बदलता रहा है देशों का परचम
मौसमी बसु कहती हैं, ‘हर सदी में अलग-अलग इलाके सभ्यता, कला, संस्कृति, आविष्कार, समृद्धि आदि के मामलों में आगे रहे हैं. ऐसा नहीं था कि आधुनिक काल में यूरोप शुरुआत से ही वैश्विक नेतृत्व में आगे रहा. अगर हम 13वीं सदी को देखें तो अरब जगत अपने स्पाइस रूट व्यापार, कला जैसे क्षेत्रों में सबसे आगे रहा. इसके बाद स्पेन और पुर्तगालियों ने अरब के एकाधिकार को तोड़ने के लिए अपने प्रतिनिधियों को वहां भेजा.’ हालांकि, इसके बाद जब 18वीं सदी में औद्योगिक क्रांति और आविष्कार हुए तो पूंजीवाद का तेजी से प्रसार हुआ. इसके बाद यूरोप दुनिया के बाकी इलाकों से आगे हो गया. फिर ब्रिटेन और फ्रांस आगे रहे और 20वीं सदी के बाद से अमेरिका सबसे आगे हो गया. ये देश न सिर्फ व्यापार में आगे रहे बल्कि इन्होंने राष्टों के निर्माण, सीमाओं के निर्धारण और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभाई.
एक तराजू में लोकतंत्र, दूसरे में उपनिवेशवाद
हालांकि, राष्ट्रीयता का सिद्धांत जब विकसित हो रहा था, तभी से अपने आप में काफी विरोधाभास और विडंबनाएं लेकर चल रहा था. इसमें लोकतंत्र और उपनिवेशवाद एक साथ चलता रहा. ब्रिटेन में 1688 में हुई रक्तहीन क्रांति ने राजा को रबर स्टैंप बनाकर सत्ता संसद के हाथों में सौंप दी थी. लेकिन इसके साथ ही ब्रिटेन का उपनिवेशवाद जारी था. यानी ब्रिटेन का लोकतंत्र अपने लोगों के लिए था और दूसरे देशों पर उसका राज करना जारी रहा. 1874 तक ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी चलती रही. यही नहीं, हॉन्गकॉन्ग तो 1997 तक ब्रिटेन की कॉलोनी बनकर रहा और इसके बाद उसकी संप्रभुता चीन को स्थानांनतरित कर दी गई.
20वीं सदी में सभ्यता का पाठ
प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं, ‘बॉर्डर बनने की दुनिया भर में अजीब प्रक्रियाएं रही हैं. यूरोप में लोग एक कमरे में कुर्सी और मेज पर बैठकर अफ्रीका की सीमाओं का निर्धारण करते हैं. इस तरह देशों के बनने की प्रक्रिया में हमें स्पष्ट तौर पर औपनिवेशिक सोच देखने को मिलती है.’ इसके बाद 20वीं सदी में मैनडेट सिस्टम आया. पहला विश्व युद्ध खत्म होने के बाद यह आधिकारिक तौर पर अंतरराष्ट्रीय उपनिवेशवाद को स्वीकृत करने वाली घटना थी. मैनडेट सिस्टम में जो देश आजाद होने वाले थे या जिनको अभी आजादी या स्वयं देश चलाने योग्य नहीं माना गया, उनका संचालन दूसरे बड़े देशों के हाथों में दे दिया गया ताकि वे आजादी लेने और स्वयं देश चलाने लायक हो सकें. जैसे सीरिया को फ्रांस देखेगा और फलस्तीन को ब्रिटेन देखेगा. इसी दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने सेल्फ गवर्नमेंट की बात की, लेकिन साथ ही साथ उपनिवेशों को तथाकथित तौर पर ‘सभ्य बनाने’ का मैनडेट सिस्टम भी साथ-साथ चल रहा था.
आपके दरवाजे तक पहुंच गया है सीमाओं का निर्धारण
सीमाओं के बनने की प्रक्रिया आज समाज और प्रशासनिक स्तर पर निचले स्तर पर मल्टीस्टोरी हाउसिंग प्रोजेक्ट (Gated Community), तहसील, जिले, राज्य के तौर पर लोगों के घर तक पहुंच गई है. प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं कि कोरोना काल की बात करें सीमा निर्धारण का काम कंटेनमेंट जोन के तौर पर दिखता है. ऐसे में समाज में हर स्तर पर लकीरें यानी सीमाएं बन रही हैं, लेकिन हमें यह देखना जरूरी होगा कि ये लकीरें इंसानों के बीच बंटवारे की वजह न बनें.
साउथ एशियाई देशों में पाबंदियां
साउथ एशियाई देशों में से ज्यादातर देशों का इतिहास और संस्कृति एक साथ विकसित हुई है. लोग पहले बिना किसी रोक-टोक के एक-दूसरे के यहां व्यापार, अध्ययन, भ्रमण आदि कार्यों के लिए आते-जाते रहे हैं. लेकिन विडंबना यह है कि भारत में बांग्लादेश से आए लोग हों या पाकिस्तान, आज उन्हें अगर अपने पूर्वजों का देश देखना हो तो वहां के लिए शहरों की सीमा के हिसाब से वीजा (City Specific Visa) मिलता है. जबकि, यूरोप में इंटरनल बॉर्डर सिस्टम है, यहां पर एक वीजा से कई देशों में घूमा जा सकता है.
सिर्फ सीमाओं से नहीं इंसानों से बनता है देश
देशों की सीमाओं के निर्धारण में कई हास्यास्पद चीजें भी देखने को मिलती हैं. मसलन एक देश बनने के लिए लोगों की जरूरत पड़ती है, लेकिन देश को चलाने वालीं सत्ताएं (States) इसका निर्धारण हमेशा सीमाओं से तय करती हैं न कि लोगों से. प्रोफेसर मौसमी बसु कहती हैं जब भी देशों का बंटवारा होता है या सीमा पर युद्ध की वजह से लोग विस्थापित होते हैं तो इन लोगों के दर्द को हमेशा अनसुना किया जाता है. दूसरी बात, अगर कभी आप किसी इंटरनेशनल फ्लाइट में बैठे हों और हवाई जहाज से नीचे देखें तो आपको कहीं किसी देश की सीमा नहीं दिखाई देगी. ये आपको एक बार यह अहसास जरूर दिलाता है कि धरती पर ये सीमाएं इंसानों ने खुद बनाई हैं और वे अक्सर इन्हीं के लिए लड़ते रहते हैं.