• आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने लगाया था मीडिया पर प्रतिबंध
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया पर भी आपातकाल की ऐसी जबरदस्त गाज गिरी, बहुत से अखबार तो संभल ही नहीं पाए और सरकारी आदेशों के गुलाम होकर ही रह गए। इस दौर में मीडिया सेंसरशिप की वजह से आपातकाल में सरकार विरोधी लेख लिखने के कारण कई पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया। उस समय कई अखबारों ने मीडिया पर सेंसरशिप के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की, पर उन्हें बलपूर्वक कुचल दिया गया।
आपातकाल की घोषणा के बाद एक प्रमुख अखबार ने अपने पहले पन्ने पर पूरी तरह से कालिख पोतकर आपातकाल का विरोध किया था तो एक ने सम्पादकीय को खाली छोड़ कर विरोध जताया था। आपातकाल के दौर पर जेल में भेजे जाने वाले पत्रकारों में केवल रतन मलकानी, कुलदीप नैयर, दीनानाथ मिश्र, वीरेंद्र कपूर और विक्रमराव जैसे नाम प्रमुख थे। उस समय देश के 50 जाने-माने पत्रकारों को नौकरी से निकलवाया गया, तो अनगिनत पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया गया।
जब अखबारों ने खाली छोड़ा अपना सम्पादकीय
आपातकाल के दौरान मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी थी, यहाँ तक की 25 जून की रात अखबार वालों की बिजली तक काट दी थी ताकि कुछ ऐसा वैसा ना छाप सके जो सरकार के खिलाफ हो। उस दौरान कई अखबारों और पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस समय जब सभी अखबारों को आपातकाल के विरोध में लिखने से रोका जा रहा था तो इंडियन एक्सप्रेस के संस्थापक रामनाथ गोयनका ने विरोध के लिए एक नया तरीका निकाला और उन्होंने 28 जून 1975 को अपना सम्पादकीय खाली छोड़ दिया था
तो सरकार ने भी इस तरह के विरोध की सजा के लिए नया तरीका ढूंढते हुए दो दिन तक इनके ऑफिस की बिजली काट दी गयी थी। इस तरह से कुछ ना बोलते हुए कुछ अन्य अख़बारों ने भी अपने संपादकीय को खाली छोड़ा था।
विदेशी अखबार के संवादाताओं को छोड़ना पड़ा था देश
आपातकाल में मीडिया सेंसरशिप इतनी खतरनाक थी कि वाशिंगटन पोस्ट, लन्दन टाइम्स, डेली टेलीग्राफ और द लोस एंजिल्स टाइम्स के रिपोर्टर को 5 घंटे के नोटिस पर देश छोड़ कर जाने के लिए कहा गया था।
उसके बाद उनको गिरफ्तार कर के दिल्ली से बाहर जाने वाली फ्लाइट से भेज दिया गया चाहे उनका परिवार पीछे छुट गया हो। इस तरह इकोनॉमिस्ट और द गार्जियन अखबार के पत्रकारों ने धमकियाँ मिलने के बाद भारत छोड़ दिया था
उसके बाद उनको गिरफ्तार कर के दिल्ली से बाहर जाने वाली फ्लाइट से भेज दिया गया चाहे उनका परिवार पीछे छुट गया हो। इस तरह इकोनॉमिस्ट और द गार्जियन अखबार के पत्रकारों ने धमकियाँ मिलने के बाद भारत छोड़ दिया था
खबरों को छापने से पहले दिखाना पड़ता था सरकारी अधिकारी को
20 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने दिल्ली के बोट क्लब पर रैली की और दूरदर्शन पर उसका लाइव कवरेज नहीं हो पाया।
उस समय विद्याचरण शुक्ल रक्षा राज्यमंत्री थे और इंद्र कुमार गुजराल सूचना मंत्री थे। दिल्ली के अखबारों और मीडिया में रैली की कम कवरेज से इंदिरा गांधी गुजराल से गुस्सा हो गईं और पांच दिन के अंदर उन्हें राजदूत बनाकर मॉस्को भेज दिया गया। इंद्र कुमार गुजराल की जगह पर वीसी शुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया। मीडिया उनके नाम से कांपता था। शुक्ल कहते थे कि अब पुरानी आजादी फिर से नहीं मिलने वाली। कुछ अखबारों ने इसके विरोध में संपादकीय की जगह खाली छोड़नी शुरू कर दी। इसपर शुक्ला ने संपादकों की बैठक बुलाकर धमकाते हुए चेतावनी द
ी कि अगर संपादकीय की जगह खाली छोड़ी तो इसे अपराध माना जाएगा और इसके परिणाम भुगतने के लिए संपादकों को तैयार रहना होगा। यही नहीं, सरकार ने किसी भी खबर को बिना सूचित किए छापने पर प्रतिबंध लगा दिया। मीडिया को खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना पड़ता था।
उस समय विद्याचरण शुक्ल रक्षा राज्यमंत्री थे और इंद्र कुमार गुजराल सूचना मंत्री थे। दिल्ली के अखबारों और मीडिया में रैली की कम कवरेज से इंदिरा गांधी गुजराल से गुस्सा हो गईं और पांच दिन के अंदर उन्हें राजदूत बनाकर मॉस्को भेज दिया गया। इंद्र कुमार गुजराल की जगह पर वीसी शुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया गया। मीडिया उनके नाम से कांपता था। शुक्ल कहते थे कि अब पुरानी आजादी फिर से नहीं मिलने वाली। कुछ अखबारों ने इसके विरोध में संपादकीय की जगह खाली छोड़नी शुरू कर दी। इसपर शुक्ला ने संपादकों की बैठक बुलाकर धमकाते हुए चेतावनी द
ी कि अगर संपादकीय की जगह खाली छोड़ी तो इसे अपराध माना जाएगा और इसके परिणाम भुगतने के लिए संपादकों को तैयार रहना होगा। यही नहीं, सरकार ने किसी भी खबर को बिना सूचित किए छापने पर प्रतिबंध लगा दिया। मीडिया को खबरों को छापने से पहले सरकारी अधिकारी को दिखाना पड़ता था।
अखबारों में क्या छपेगा क्या नहीं यह संपादक नहीं, सेंसर अधिकारी तय करते थे । राज्यों के सूचना विभाग, भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) और जिला-प्रशासन के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी बनाकर अखबारों पर निगरानी रखने का काम दिया गया था।
ये अधिकारी संपादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश जारी करते थे और इन सेंसर अधिकारियों को ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, ख़ासकर इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी से प्राप्त होते थे । इन आदेशों पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी ।
ये अधिकारी संपादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश जारी करते थे और इन सेंसर अधिकारियों को ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, ख़ासकर इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी से प्राप्त होते थे । इन आदेशों पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी ।
तत्कालीन सम्पादकों ने भी इसको अपने तरीके से डील किया कि सरकार या सरकारी अधिकारी द्वारा मिलने वाले आदेशों को सूचना रजिस्टर में संकलित किया जैसे कि सेंसर अधिकारी ने फोन द्वारा बोला कि नसबंदी में लापरवाही की वजह से हो रही मौत की खबर ना प्रकाशित की जाए,
इसी तरह बस्ती जिले में बी. डी. ओ. तथा दो ए. डी. ओ. की हत्या का समाचार ना छापा जाए आदि।
इसी तरह बस्ती जिले में बी. डी. ओ. तथा दो ए. डी. ओ. की हत्या का समाचार ना छापा जाए आदि।
इंदिरा के जैसा आपातकाल आना चाहती है वर्तमान सरकार
जिस प्रकार विगत दिनों मीडिया को सच्चाई दिखाना गुनाह हो गया है, मीडिया की स्वतंत्रता, देश के चौथे स्तंभ की आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है, दैनिक भास्कर समूह और भारत समाचार के मीडिया हाउसों में जिस प्रकार इनकम टैक्स की रेड डाली गई, तो इससे अच्छा ही होता है कि इंदिरा जैसा मीडिया पर आपातकाल वर्तमान सरकार लाना चाहती है,
जिस प्रकार दैनिक भास्कर समूह ने कोरोना की दूसरी लहर की कवरेज की और सच्चाई सबके सामने रखी, उसी प्रकार भारत समाचार ने लगातार खबरों को कवर करके जो सच्चाई दिखाई, लगता है वह सरकार को अच्छी नहीं लगी, सच्चाई दिखाना अब देश ने गुनाह बनता जा रहा है, मीडिया संस्थानों पर जिस प्रकार छापा डाला गया उससे या जाहिर होता है कि सच्चाई दबाने के लिए यह पहल की गई।
जिस प्रकार दैनिक भास्कर समूह ने कोरोना की दूसरी लहर की कवरेज की और सच्चाई सबके सामने रखी, उसी प्रकार भारत समाचार ने लगातार खबरों को कवर करके जो सच्चाई दिखाई, लगता है वह सरकार को अच्छी नहीं लगी, सच्चाई दिखाना अब देश ने गुनाह बनता जा रहा है, मीडिया संस्थानों पर जिस प्रकार छापा डाला गया उससे या जाहिर होता है कि सच्चाई दबाने के लिए यह पहल की गई।
मीडिया पर हुए छापेमारी को लेकर मेरा संपादकीय पक्ष यह है कि लगातार हम सच्चाई दिखाते रहे, ना डरे हैं ना डरेंगे बस छापे ही तो पड़ेंगे। स्वतंत्र, निष्पक्ष ,साहसिक पत्रकारिता के बल पर ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण संभव है।
अमन दीप सचान
प्रधान संपादक