
स्थान: बबई अमौली, फतेहपुर
बचपन जीवन का वह सुनहरा दौर होता है जब मासूमियत, खेल-कूद और कहानियों की दुनिया में बच्चा निश्चिंत जीवन जीता है। परंतु आज का यथार्थ इससे बिल्कुल उलट है। डिजिटल युग की चकाचौंध और इंटरनेट की लत ने बच्चों का बचपन उनसे छीन लिया है।
मोबाइल, लैपटॉप और इंटरनेट की बढ़ती पकड़ ने गांव के बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। जहां एक समय गांवों की चौपालें बच्चों की हंसी से गूंजती थीं, वहीं आज वे खाली और सूनी पड़ी हैं। गुल्ली-डंडा, कंचे, कबड्डी और पेड़ों पर झूले पड़ने जैसी परंपराएं अब सिर्फ यादों तक सीमित रह गई हैं।
राष्ट्रीय उप महानिदेशक (एंटी करप्शन) श्री बेअंत सिंह बताते हैं, “हमें आज भी याद है जब सावन आते ही गांवों में पेड़ों पर झूले पड़ते थे। हम दादी-बाबा की कहानियों में खो जाते थे, मिट्टी में खेलते थे, लकड़ी की गाड़ियों से घर बनाते थे। लेकिन आज के बच्चों के लिए यह सब जैसे किसी कल्पना की बात हो गई है।”
तकनीक का प्रभाव अब सिर्फ शहरों तक सीमित नहीं रहा। गांवों में भी स्मार्टफोन की पहुंच तेज़ी से बढ़ रही है। छोटे-छोटे बच्चे घंटों मोबाइल पर गेम्स और यूट्यूब में व्यस्त रहते हैं। परिणामस्वरूप न केवल उनका शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ रहा है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि अत्यधिक स्क्रीन टाइम के कारण बच्चों की आंखों की रोशनी कम हो रही है। साथ ही, कम उम्र में ही वे तनाव, नींद की कमी और अन्य शारीरिक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
आज आवश्यकता है कि समाज, अभिभावक और शिक्षक मिलकर इस बदलते परिदृश्य को समझें और बच्चों को पुनः प्राकृतिक, सामाजिक और रचनात्मक वातावरण प्रदान करें। बच्चों को तकनीक से दूर कर मिट्टी की खुशबू और पारंपरिक खेलों की ओर लौटाना ही उनके स्वस्थ भविष्य की कुंजी है।
रिपोर्ट
सुकेश कुमार जिला ब्यूरो चीफ फतेहपुर