
देश को हर हाल में आज़ाद कराने का संकल्प लेने वाले, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शान्ति शरण विद्यार्थी एक अत्यंत सरल व्यक्तित्व और अद्भुत जीवटता के धनी थे। मुझे उन्हें निकट से जानने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रेमनगर धर्मकांटा चौराहे के समीप उनका निवास था और भारतीय पत्रकारिता संस्थान के अनेक आयोजनों में उनके साथ समय बिताने का सौभाग्य मिला। मैं स्वयं को अत्यंत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि ऐसे साहसी देशभक्त के निकट रहने और उनके विचारों को सुनने का अवसर मिला।
1997 में, बरेली कॉलेज में आयोजित भारत की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के भव्य कार्यक्रम में मुझे तथा झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल श्री संतोष गंगवार को शान्ति शरण विद्यार्थी जी को सम्मानित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने न केवल राष्ट्र और समाज को दिशा दी, बल्कि अपने परिवार को भी संस्कारवान और मूल्यनिष्ठ बनाया।
शान्ति शरण विद्यार्थी जी का योगदान ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ (1942) के दौरान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा। उन्होंने कुंवर दया शंकर एडवर्ड मेमोरियल स्कूल, बरेली में ब्रिटिश हुकूमत का यूनियन जैक उतारकर भारतीय तिरंगा फहरा दिया था। इसके परिणामस्वरूप 9 अगस्त 1942 को उन्हें उनके साथियों सहित गिरफ़्तार कर बरेली सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया। उस समय वह के.डी.ई.एम. इंटर कॉलेज के छात्र थे। जेल में उनके साथ महानंद सेवक, कृष्ण मुरारी असर, प्रताप चंद्र आज़ाद, दीनानाथ मिश्र, नौरंग लाल तथा धर्मदत्त वैद्य भी थे। वहाँ उनकी एक कविता भी बहुत चर्चित रही। लगभग साढ़े चार माह के कारावास के पश्चात उन्हें रिहा किया गया, किंतु शिक्षा प्रभावित हुई और पुलिस के दबाव के कारण उन्हें सीतापुर भेजना पड़ा।
उन्होंने स्वयं बताया था कि क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी से प्रेरणा लेकर ही उन्होंने ‘सक्सेना’ उपनाम हटाकर अपने नाम के साथ ‘विद्यार्थी’ जोड़ा था। उनका जन्म 8 अक्टूबर 1921 को बरेली के भूड़ मोहल्ले में, राघव राम वर्मा एडवोकेट के मंझले पुत्र के रूप में हुआ था। किशोरावस्था में ही वह स्वामी श्रद्धानंद सेवक दल से जुड़ गए थे और ब्रिटिश सेना की गतिविधियों पर निगरानी रखकर क्रांतिकारियों तक महत्वपूर्ण सूचनाएँ पहुँचाने का कार्य करते थे। वर्ष 1940 में जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस डी.ए.वी. कॉलेज, बरेली पधारे थे, तब विद्यार्थी जी ने स्वयं पंखा झेलकर उनकी सेवा की थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे देश में बढ़ते भ्रष्टाचार से अत्यंत व्यथित रहते थे। ईमानदारी और सत्यनिष्ठा उनके जीवन के मूल स्तंभ थे। वे प्रायः कहा करते थे कि “भारतीय नागरिक स्वतंत्रता के बाद अपने कर्तव्यों को भूल गया है।”
ऐसे अप्रतिम राष्ट्रभक्त की स्मृति में प्रेमनगर धर्मकांटा चौराहे पर उनकी प्रतिमा स्थापना का कार्य प्रगति पर है। उनकी 12वीं पुण्यतिथि पर हम उन्हें शत-शत नमन एवं भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
रिपोर्ट
अमर पाल संवाददाता