
रिपोर्टर: मोती राम, मीरगंज, बरेली
उत्तर प्रदेश की कौशांबी जेल से 2 मई 2025 को एक ऐसी खबर सामने आई, जिसने पूरे देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए। यह कहानी है लखन पुत्र मंगली की, जो 103 वर्ष की उम्र में जेल से बाहर निकले — और वो भी इसलिए नहीं कि उन्होंने सजा पूरी की, बल्कि इसलिए क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया।
लखन को वर्ष 1977 में हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। पांच वर्षों बाद, 1982 में निचली अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुना दी। लखन लगातार यह कहते रहे कि वे निर्दोष हैं। उन्होंने 1982 में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में सजा के खिलाफ अपील दायर की थी।
लेकिन यहीं से शुरू होती है उस अन्याय की सबसे लंबी दास्तान। लखन की अपील 43 वर्षों तक अदालत में लंबित रही, और इस दौरान वह लगातार जेल में बंद रहे। 2025 में, जब उनकी उम्र 103 वर्ष हो चुकी थी, तब जाकर अदालत ने उन्हें निर्दोष ठहराया और जेल से रिहा किया गया।
यह न्याय है या अन्याय?
एक निर्दोष व्यक्ति जिसने अपनी ज़िंदगी के 43 साल जेल की सलाखों के पीछे बिताए — यह खबर सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक बहुत बड़े सवाल की ओर इशारा करती है: क्या भारत में इंसाफ इतना धीमा और महंगा हो चुका है कि वह गरीबों के लिए असंभव हो गया है?
आज भी लाखों लोग किसी न किसी अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं। कितने लोगों ने इसके लिए अपनी जमीनें, अपने मकान, यहां तक कि कर्ज लेकर अपना सबकुछ झोंक दिया है। फिर भी इंसाफ नहीं मिला। लखन जैसे बुजुर्गों का उदाहरण बताता है कि देश की गरीब जनता सिर्फ इंतज़ार करती है — कभी-कभी पूरी उम्र।
इंसाफ की कीमत कितनी है?
उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा लड़ना गरीब के लिए लगभग नामुमकिन है। वकील की फीस, केस की तारीखें, दस्तावेज़, हर चीज़ पैसा मांगती है — और गरीब के पास सिर्फ उम्मीद होती है।
और यही उम्मीद लेकर आज भी लोग कहते हैं — “मैं अदालत जाऊंगा।”
यह वाक्य हमारे समाज की न्याय व्यवस्था में गहरी आस्था का प्रतीक है, लेकिन अगर ऐसी आस्था का परिणाम 43 साल की कैद और 103 साल की उम्र में रिहाई है — तो यह सोचने की ज़रूरत है कि हमारी न्याय प्रणाली कहां खड़ी है?
लखन की रिहाई हमारे सिस्टम के लिए एक आईना है। सवाल ये नहीं है कि वह रिहा हुए, सवाल ये है — इतनी देर क्यों लगी?