
रिपोर्ट: मोतीराम वर्मा, शाही बरेली
उत्तर प्रदेश की सियासत एक बार फिर गर्माने लगी है। जैसे-जैसे 2027 के विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवों में बंटी नज़र आ रही है — एक ओर भाजपा के तेजतर्रार नेता और मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, तो दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के युवा और जुझारू नेता अखिलेश यादव।
योगी आदित्यनाथ: दृढ़ प्रशासन और हिंदुत्व की राजनीति
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने शासनकाल में कानून-व्यवस्था को प्राथमिकता दी। अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे धार्मिक स्थलों के विकास से उन्होंने हिंदू मतदाताओं का बड़ा समर्थन हासिल किया। उनके “80 बनाम 20” जैसे बयानों ने उनकी रणनीति को और स्पष्ट कर दिया — बहुसंख्यक समाज को साधना और हिंदुत्व की राजनीति को धार देना।
उनके समर्थक मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में अपराध पर लगाम, बुनियादी ढांचे का विकास और विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी, योगी सरकार की बड़ी उपलब्धियाँ हैं। उनके नेतृत्व में भाजपा का वोट बैंक पहले से अधिक संगठित और प्रतिबद्ध हुआ है।
अखिलेश यादव: सामाजिक न्याय और युवा नेतृत्व की नई सोच
दूसरी ओर, अखिलेश यादव ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) समीकरण को आधार बनाकर 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को कड़ी टक्कर दी। समाजवादी पार्टी ने कई सीटों पर जीत दर्ज की, जिससे अखिलेश की सियासी ताकत को मजबूती मिली।
अखिलेश यादव युवाओं, किसानों, महिलाओं और कमजोर वर्गों को साथ लेकर समावेशी विकास की बात करते हैं। उनके समर्थकों का मानना है कि सपा की सरकार में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व रहा और विकास योजनाओं का लाभ आम जनता तक पहुंचा।
सियासी मुकाबला: विकास बनाम पहचान
2027 का चुनाव महज दो नेताओं के बीच नहीं बल्कि विकास बनाम पहचान की राजनीति के बीच होगा। योगी जहाँ सख्त प्रशासक और हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में उभरते हैं, वहीं अखिलेश एक आधुनिक, शिक्षित और सामाजिक न्याय के पैरोकार नेता के रूप में प्रदेश की नई पीढ़ी को आकर्षित कर रहे हैंभाजपा को जहां अपने शासन की नीतियों और हिंदुत्व के एजेंडे पर भरोसा है, वहीं सपा को सामाजिक न्याय और बदले की हवा पर यकीन है। दोनों दलों ने अपनी-अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है और जनता के बीच सक्रिय हैं।